मंगलवार, 11 नवंबर 2008

सड़क

वो स्याह काली रात की चादर ओड़े,
ये ज़रा टेढी सी सड़क,
एक एहसास दिला रही है,
शायद बरसो से कोई गुज़रा नहीं,
उस पसरे हुए सन्नाटे में,
आँखे महसूस करती हैं,
चीखते अंधियारे को,
ये कान सुन रहे थे,
जगमगाती खामोशी को,
और कदम उठा रहे थे,
इन सबको नापने का ज़िम्मा,
ये कुछ ऐसा था जैसे,
उस लाशों से भरे शमशान में,
बरसो से किसी ने कदम नहीं रखा,
न कोई आग जली,
न कोई कफ़न उड़ा,
फिर भी वह कुछ तो है,
क्यूँ सन्नाटा चीख रहा है,
अँधियारा चमक रहा है,
इस सड़क को कोई मुकाम कब मिलेगा,
तरसते मील के पत्थरों को,
नया निशाँ कब मिलेगा,
कब यूँ होगा,
कि ये सड़क सूरज को देखेगी,
कब चिड़िया आकर बैठेगी,
कुछ पत्ते हवाओं से टूटकर नीचे गिरेंगे,
और फ़िर हवाएं उन्हें अपने साथ,
कहीं दूर ले जाएँगी,
रह जायेगी तो ये सड़क,
कहीं दूर अपनी मंजिल को देखती...

शब्द

उदास से जो शब्द हैं,
नाराज़ से जो लफ्ज़ हैं,
सुर दो उन्हें कुछ दर्द का,
कुछ आस का एहसास का,
कुछ थम कर तुम देखो ज़रा,
हरकत दिल की थामो ज़रा,
जब सातवां सुर मिल जाएगा,
ख़ुद शब्द भी खिल जाएगा,
हर दोस्ती धड़केगी फ़िर,
रुस्वाइयाँ थम जाएँगी,
क्यूंकि दिल को धडकना आया है,
जीने का बहाना आया है,
बस इस एहसास को जीने दो,
अब शब्दों को कुछ लिखने दो...

क्या है !!!

कुछ ऐसा ही होता है शायद,
जो चाहे हम वो हमे नही मिलता,
सीधा रास्ता भी अचानक से लगता है कुछ उल्टा,
ज़िन्दगी की चंद सांसे साथ गुजरने की सोची,
तो बस वक्त की सुई उलटी चल पड़ी,
लम्हों की गुज़ारिश करने की सोची,
तो खुदा की रहमत भी न मिली,
धुप से कुछ सरगोशी करनी चाही,
तो अमावास की चादर आ गिरी,
एक राह मिली मंजिल को,
उस पर जो चले हम,
दूर एक आवाज़ आई,
और कदमो को थाम दी,
हम वही खड़े आज भी सोचे,
क्या है खुदा की कलम में,
क्या है उसकी स्याही में