शनिवार, 9 मई 2015

वो छोटी सी चिड़िया

वो एक चिड़िया जो मेरी छत पर रोज़ सुबह आती थी 
अब नहीं आती 
मेरी माँ के बिखेरे हुए चावल अब यूँही पड़े रहते है 
ची ची चू चू की आवाज़ भी सन्नाटे के गले मिल गयी है 
कोई खबर तो उसने दी नहीं 
न ही कोई चिठ्ठी भेजी 
पर वो तो चिड़िया है, ऐसा कैसे करती 
मेरे आँगन के उपरवाले एक कोने में 
आज भी उसके घोसले की दर-ओ-दीवार सलामत है 
बस वहां कोई रहता नहीं  
अब भी माँ को उसका इंतज़ार है 
कहती है 
उनके रहने से घर में हलचल सी रहती थी 
जैसे कोई छोटा सा बच्चा उदास नहीं होने देता 
होठो को मुस्कुराने के बहाने देता है 
पर मुझे नहीं पता 
वजह, कारण या जो भी हो 
बस उनके न होने का एहसास
मुझे भी पता चलता है 
वो गौरैया वो छोटी सी चिड़िया 
न जाने कितनी बड़ी जगह 
हमारी ज़िन्दगी में कायम कर गयी 
अब फिर न जाने कब दिखेगी 

गुरुवार, 27 फ़रवरी 2014

.......चलूँ

सोचता हूँ वक़्त के कोहरे के उस पर चलूँ…
कभी मौके बेमौके बढ़ा के अपनी रफ़्तार चलूँ....
अभी चीरना भी है ऊंचे पर्वतों का सीना…
धार जल की भी चाहिए, चीर धरती का सीना....
बस कदम साध साध चलूँ …
इरादों के साथ चलूँ…
चलूँ कदम दर कदम चलूँ....

शनिवार, 12 मई 2012

माँ ! सुनो ज़रा...

माँ !
सुनो ज़रा...
बड़ा थक सा गया हूँ...
बड़ी याद सी आई है...
आपकी गोद में सर रख कर सोना है...
और माँ..
मेरी आँखों में अपने दाए हाथ से...
एक मोटी लकीर काजल की खींचना...
और उन्ही हाथों से...
माथे के बाए कोने पर...
एक टीका सा लगा देना...
अच्छा माँ सुनो न...
बड़े दिनों से वो थाली में परोसी दाल और चावल नहीं खायी...
वो प्याज की पकौड़ी और 
हलवे की मिठास नहीं मिली...
माँ सच... बड़े दिन से तुम नहीं मिली.....
वैसे तो सब कहते हैं 
बड़ा आगे निकल चुका हूँ...
पर मीलों क फासले पर 
तुम ही को नहीं देख पता हूँ...
कभी तुम्हारी डांट...
तो कभी मीठी बात को तरसता हूँ...
ये सब नहीं मिलता माँ...
मैं तुम को तरसता हूँ....
तुम्हारे पास न होने से थक सा गया हूँ....
बस एक थपकी दे कर सुला दो...
ज़रा नींद आ जाये... 
आज भी तुम्हारा आँचल...
दुनिया की हर धुप 
और हर दर्द को दूर कर देता है... 

शुक्रवार, 23 जुलाई 2010

तुम्हारी आँखे


मैंने कल तुम्हारी आँखे देखी थी,
न जाने कैसी पर एक कहानी कहती थी,
दूर किसी पेड़ की डाल पर,
कल को अनजाना कहती थी,
दीवारों से आरपार खिड़की खोले,
किसी धूप की बात कहती थी,
जीते जीते कुछ साँसे लेते,
किसी धड़कन को धडकती थी,
झुकते उठते गिरते चलते,
थोडा सा मुस्काती थी,
मैं जी लूं, कुछ जी लूं,
एक इशारा करती थी,
अंधियारे में गुमसुम गुमसुम,
कोई खोया रस्ता तकती थी,
मिल जाते ही उन अंखियों से,
कुछ गुनगुनाया करती थी,
सचमुच ये खुली खुली सी आँखे,
कोई एक कहानी कहती थी....

बुधवार, 14 जुलाई 2010

तुम 01

तुम मुडती हुयी उस सड़क सी हो,
किसी नए से रस्ते का अंदेशा बताती,
किसी नयी आहट का किस्सा बताती,
किसी पुरानी उलझन कि सुलझन बताती,
चौराहे को भी एक राह बनाती,
सपनो में से सच कि डगर बनाती,
न अगर न मगर,
सच को बस एक... सच बताती,
तुम्हारे आसपास एक मुस्कान सी फैली है,
तुम्हारे आसपास एक खुशबु सी बिखरी है,
तुम्हारे आसपास चांदनी भी है,
तुम्हारे आसपास रागिनी भी है,
मैं क्यूँ तुम्हारे आसपास रहता हूँ,
अपने मन में ये सवाल रखता हूँ,
जीता तो अपनी साँसों से हूँ,
पर उलझा तुम्हारे भीतर हूँ...

अंजान लगने लगा हूँ....

मैं कल से न जाने क्यूँ उस खिड़की के पास खड़ा सा हूँ,
कदम हैं कि हिलने की कोई हरक़त नहीं होती,
जुबां है की बोलने की हिम्मत नहीं होती,
दिल है की धडकने की सोच से डरता है,
ये मन हैं कि कुछ नयी कल्पना भी नहीं करता,
कभी घडी की टिकटिक से पलके खुल सी जाती है,
कभी अचानक से बजी दरवाज़े की घंटी हिला सा देती है,
वो कुछ दौड़ते कदमो की आहट मुझे आहत सा कर देती है,
कभी वो श्वान की तेज़ आवाज़ अन्दर तक हिला देती है,
अब अँधेरे से भी मैं कुछ घबराने सा लगा हूँ,
रौशनी के करीब जाने लगा हूँ,
मंदिर गिरजा के करीब कुछ बुदबुदाने भी लगा हूँ,
न जाने क्यूँ लेकिन खुद को अब अंजान लगने लगा हूँ,

रविवार, 10 मई 2009

उस दिन अम्मा छत पर आई....

अम्मा उस दिन छत पर आई,
हाथों में कुछ ले के आई,
मेरे चेहरे, मेरे माथे पर,
कुछ पोता कुछ लगाया,
मेरे चेहरे की उदासी और
माथे कि शिकन अपने हाथो में ले गयी,
एक नयी चमक,
एक नयी मुस्कान मेरे चेहरे को दे गयी,
गर्मी की जलती धूप को,
सर्दी की नरम धूप कर गयी,
अच्छा हुआ जो उस दिन अम्मा छत पर आई.....

बुधवार, 29 अप्रैल 2009

आम हिन्दुस्तानी

संगीनों के साए में लहू का एक कतरा,
तलाशता हूँ मैं, खोजता हूँ मैं,
इधर उधर,
बाहें पसार कर,
पुतलियाँ घुमा कर,
अपनी उँगलियों में हरकत कर,
खोजता हूँ मैं, तलाशता हूँ मैं,
वो मिला मुझे,
वो दिखा मुझे,
सिसका हुआ,
सहमा हुआ,
कुछ डरा हुआ,
सिमटा हुआ,
मैंने सोचा हाल लूँ,
कुछ जान लूँ पहचान लूँ,
शायद किसी अखबार के चार कॉलम की ख़बर हो,
शायद किसी न्यूज़ चैनल की ब्रेकिंग न्यूज़ हो,
या शायद किसी पार्टी के लिए॥
चार दिन का बंद,
आठ दिनों का प्रदर्शन,
पन्द्रह दिनों का विवाद,
नही तो दो चार दिनों की ठप्प संसद ही मिल जायेगी,
बदले में मुझे कुछ कागजी,
कुछ कागजी ताकत मिल जायेगी,
तो मैंने उससे पूछ लिए वो सवाल,
जो ख़ुद बवाल बन बैठे,
तेरी उम्र क्या है ?
नाम क्या है ?
जात क्या है ?
पात क्या है ?
तू आरक्षित है ?
तू दलित है ?
तू मन्दिर है ?
तू मस्जिद है ?
सवाल तो कुछ बह चले थे,
शब्दों की अटूट धार से,
जवाब सुन के थम गए ठहर गए,
जवाब सिर्फ़ एक था,
मैं आम हिन्दुस्तानी हूँ...!!!

खुशियाँ...!!!

तरसता हूँ,
खुशियों को तरसता हूँ,
जो यूँही कभी दिख जाती हैं,
जो यूँही मुझे मिलती नही,
तरसता हूँ,
ऐसी हर खुशी को तरसता हूँ.....!!!!


जब देखता हूँ,
सड़क के उस पार खड़ा लड़का,
अठन्नियां और चवन्नियां बटोरता,
अपनी मुठ्ठी औरों के सामने खोलता,
कभी अपनी छत कभी अपनेआप को खोजता,
एक दिन आसमा को देखता है,
जब बारिश होती है,
उसकी मुठ्ठी ख़ुद के लिए खुलती है,
बारिश को बटोरती है,
होठों पर ही नही आंखों में भी मुस्कान ठहर जाती है,
ऐसी किसी खुशी को तरसता हूँ,
हाँ सच मैं तरसता हूँ...!!!


जब देखता हूँ,
वो छोटा सा बच्चा,
स्लेटी रंग की मटमैली सी बनियान पहने,
जो कभी सफ़ेद थी, नई थी,
किसी और ने पहनी थी,
आज पुरानी है,
कुछ ज़्यादा ही फटी सी है,
उसे पहने वो उस कटी पतंग के पीछे भागता है,
छ साल के बच्चे के अन्दर का नौजवान जागता है,
जब कटी पतंग डोर सहित उसके हाथो में आती है,
वो मुस्कुराता है,
अपने चार पसलियों वाले सीने को फुलाता है,
मैं तरसता हूँ,
ऐसी खुशी को तरसता हूँ,


जब देखता हूँ,
वो छोटी मासूम सी लड़की,
फटे पुराने कपडो में लिपटी,
अपने गुड्डे के लिए नए कपडे खोजती है,
क्योंकि कल उसकी सहेली की गुडिया से गुड्डे की शादी है,
वो पूरा घर खंगाल लेती है,
नया तो दूर पुराना भी नही पाती है,
दौड़ के जाती है अपनी तिजोरी, मुहल्ले के उस ढेर की तरफ़,
जहाँ बाकी सारी दुनिया के शौक़ फेंके गए हैं,
वहां से सबसे नयावाला पुराना कपडा उठाती है,
सुई धागा नही पाती, तो झाडू की सींक उठाती है,
छेड़ कर, धागा डालती है, फ़िर उसी में गाँठ लगाती है,
गुड्डे को दोनों हाथों में पकड़ कर ऊपर उठाती है,
उसकी आँखें चमकती है, रोम रोम मुस्काता है,
मैं तरसता हूँ,
ऐसी खुशी को सच तरसता हूँ...!!!