बुधवार, 14 जुलाई 2010

अंजान लगने लगा हूँ....

मैं कल से न जाने क्यूँ उस खिड़की के पास खड़ा सा हूँ,
कदम हैं कि हिलने की कोई हरक़त नहीं होती,
जुबां है की बोलने की हिम्मत नहीं होती,
दिल है की धडकने की सोच से डरता है,
ये मन हैं कि कुछ नयी कल्पना भी नहीं करता,
कभी घडी की टिकटिक से पलके खुल सी जाती है,
कभी अचानक से बजी दरवाज़े की घंटी हिला सा देती है,
वो कुछ दौड़ते कदमो की आहट मुझे आहत सा कर देती है,
कभी वो श्वान की तेज़ आवाज़ अन्दर तक हिला देती है,
अब अँधेरे से भी मैं कुछ घबराने सा लगा हूँ,
रौशनी के करीब जाने लगा हूँ,
मंदिर गिरजा के करीब कुछ बुदबुदाने भी लगा हूँ,
न जाने क्यूँ लेकिन खुद को अब अंजान लगने लगा हूँ,

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