शनिवार, 20 दिसंबर 2008

वो एक ख्वाहिश है..!!!

वो एक ख्वाहिश है, अपनी आंखों से कुछ तलाशती है,

वो एक दरिया है, कभी हंसती कभी मुस्कुराती है,

वो कहीं दूर से आती आवाज़ है, सुनती है सुनाती है,

वो एक मीठी ग़ज़ल सी है, चुपके से दिल में उतरती है,

वो कहीं घास पर बैठी ओस जैसी है, नर्म नाज़ुक मगर हलकी सी है,

कभी शोखी सी घोलती है, फ़िर भी शीतल सी है,

सुना था कहीं चंचल सी है, छू कर देखा तो हलचल में भी थमी सी है,

आती है पास सोचकर की बैठेगी वो अभी, दूर तभी दिखती वो भागती सी है,

हर पल को महसूस सा करती है, अपनी बातो में हर रंग घोलती सी है,

नज़र को भी नज़ारे देखती दिखाती है, मोहती हर लम्हे को मोहिनी सी है

मंगलवार, 11 नवंबर 2008

सड़क

वो स्याह काली रात की चादर ओड़े,
ये ज़रा टेढी सी सड़क,
एक एहसास दिला रही है,
शायद बरसो से कोई गुज़रा नहीं,
उस पसरे हुए सन्नाटे में,
आँखे महसूस करती हैं,
चीखते अंधियारे को,
ये कान सुन रहे थे,
जगमगाती खामोशी को,
और कदम उठा रहे थे,
इन सबको नापने का ज़िम्मा,
ये कुछ ऐसा था जैसे,
उस लाशों से भरे शमशान में,
बरसो से किसी ने कदम नहीं रखा,
न कोई आग जली,
न कोई कफ़न उड़ा,
फिर भी वह कुछ तो है,
क्यूँ सन्नाटा चीख रहा है,
अँधियारा चमक रहा है,
इस सड़क को कोई मुकाम कब मिलेगा,
तरसते मील के पत्थरों को,
नया निशाँ कब मिलेगा,
कब यूँ होगा,
कि ये सड़क सूरज को देखेगी,
कब चिड़िया आकर बैठेगी,
कुछ पत्ते हवाओं से टूटकर नीचे गिरेंगे,
और फ़िर हवाएं उन्हें अपने साथ,
कहीं दूर ले जाएँगी,
रह जायेगी तो ये सड़क,
कहीं दूर अपनी मंजिल को देखती...

शब्द

उदास से जो शब्द हैं,
नाराज़ से जो लफ्ज़ हैं,
सुर दो उन्हें कुछ दर्द का,
कुछ आस का एहसास का,
कुछ थम कर तुम देखो ज़रा,
हरकत दिल की थामो ज़रा,
जब सातवां सुर मिल जाएगा,
ख़ुद शब्द भी खिल जाएगा,
हर दोस्ती धड़केगी फ़िर,
रुस्वाइयाँ थम जाएँगी,
क्यूंकि दिल को धडकना आया है,
जीने का बहाना आया है,
बस इस एहसास को जीने दो,
अब शब्दों को कुछ लिखने दो...

क्या है !!!

कुछ ऐसा ही होता है शायद,
जो चाहे हम वो हमे नही मिलता,
सीधा रास्ता भी अचानक से लगता है कुछ उल्टा,
ज़िन्दगी की चंद सांसे साथ गुजरने की सोची,
तो बस वक्त की सुई उलटी चल पड़ी,
लम्हों की गुज़ारिश करने की सोची,
तो खुदा की रहमत भी न मिली,
धुप से कुछ सरगोशी करनी चाही,
तो अमावास की चादर आ गिरी,
एक राह मिली मंजिल को,
उस पर जो चले हम,
दूर एक आवाज़ आई,
और कदमो को थाम दी,
हम वही खड़े आज भी सोचे,
क्या है खुदा की कलम में,
क्या है उसकी स्याही में

मंगलवार, 22 जुलाई 2008

एकाकार

समंदर के किनारे,
उस गीली रेत पर,
मेरे तुम्हारे कदमो के निशाँ ,
आज भी दुनिया वालों को नज़र आते है,
ग़मों का समंदर, जो उदास है,
थमा थमा सा है,
निशाँ को छू भी ना पाया,
वहीँ खुशियों की लहर,
न जाने कितनी बार,
लहराती, बलखाती, निशान को भिगो कर चली गयी,
तभी तो हम तुम, ना होकर भी,
वहाँ रेत पर बसते हैं,
तुमने सोचा था,काश ऐसा हुआ होता,
ये निशान किसी पत्थर पर होता,
ना हटने न मिटने का डर होता,
जरुरत ही न होती जताने की,
जरूरत ही न होती बताने की,
फिर भी खुश हूँ मैं,
रेत पर अपने निशान देख,
कितना मज़बूत है ये रिश्ता,
कितना मज़बूत है ये भरोसा,
जिसे ये पानी, ये हवा, ये सूरज, ये धरती,
न छू सके, न मिटा सके,
वो दुनिया से क्यूँ डरे,
शायद तभी इसे प्यार कहते हैं,
नहीं इसे मेरा और तुम्हारा एकाकार कहते हैं

शुक्रवार, 18 जुलाई 2008

हम उनसे कहते हैं

हम उनसे कहते हैं,
ये काजल ज़रा हटालो,
जो खुद ही सुरमयी है,
उसे ऐसे क्यूँ ढकते हो,
हम उनसे कहते हैं,
ये पलके ज़रा उठा लो,
हम कबके थम गए हैं,
कुछ साँसे ज़रा दिला दो,
हम उनसे कहते हैं,
मेरे कंधे पर सर रख दो,
कोई दर्द तलाशे लम्हा,
उसे उसमें गुम होने दो,
वो कोर पर सिमटा आंसू,
बेताब है जो बहने को,
उसे बाँध के यूँ न रखो,
लबों को छू जाने दो,
तभी तो हर धड़कन का,
हर कतरा बोलेगा,
चलो ज़रा सा हंस ले,
ये गुज़रा लम्हा जी लें,
बस यूँ ही हम उनसे कहते हैं,

शुक्रवार, 11 जुलाई 2008

दखल

दरख्तों के आईने में,

एक अक्स सा दिखा था,

कुछ पत्ते जब टूट कर ,

ज़मीन को छू भी ना पाए थे,

हवा ने सरगोशी की,

सन्नाटे में खामोशी की,

पत्ते उड़ कर बिखर गए,

कुछ तितर गए,

कुछ बितर गए,

एक कहानी अधूरी सी,

मंजिल बगैर पूरी सी,

चल पड़ी जो दबाव में,

कटे हाथ और पांव में,

सोचती कुछ कर चले,

कुछ कह चले,

कुछ सुन चले,

जो दखल मिले किसी और का,

तो सहारा लेकर चल पड़े

गुरुवार, 10 जुलाई 2008

आँखे

आँखे कुछ सपने देखती है,
आँखे कुछ सपने बुनती है,
कभी बीते कल से नम होती हैं,
कभी आते कल को छूती है,
कभी हौले हौले चलते पल को,
निखर निखर सहलाती है,
पलकों को ऊपर उठती है,
ऊंचाई अम्बर की छूनी है,
नीचे जब ये देखती है,
धरती पाताल मिलाती है,
आशा की बूंदों से भीगे,
उम्मीदों को दौडाती है,
अपनी सोच से आगे चलते,
रंग दिमाग पर रचती है,

शनिवार, 16 फ़रवरी 2008

मेरी कविता...



मेरी कविता,

जिसके लफ्ज़, कुछ खो से गए,

एहसास कहीं दब से गए,

न जाने कितनी कब्रें खोदी,

जज्बात भी कहीं भटक गए,

वो जो दूर काली स्याही है

उसी से तो लिखा,

ज़िंदगी के स्याह पन्नों पर,

कुछ ऐसा,

जो उसी में कहीं खो गया,

ख़ुद आज भी खोजती है मेरी कविता,

अपने वजूद को,

उन के बीच जो जगमगा रहे हैं,

शांत शोर के साथ,

मेरी कविता गूंजने की कोशिश कर रही है,

कोई शब्द मिले तो इसका नाम लिख दूँ,

पर शब्द ही छुप गए,

अब मेरी कविता, सिर्फ़ मेरी कविता है,

बेनाम है,

शायद एक दिन,

इसे भी पहचान मिले,

इसी उम्मीद में आज भी,

कुछ साँसे बाकी हैं....

मेरी ज़िंदगी...

ये मेरी ज़िंदगी है ,

हाँ सच कहीं छूटती सी ,

कहीं टूटती सी ,

कभी किसी डाल पर हवाओं के साथ झूलती सी ,

कभी लहरों पर मचलती सी ,

ये मेरी ज़िंदगी है ,

उस ऊंची मचान से ,

पर्वतों को निहारती ,

कभी दरवाज़े की ओट से ,

रास्ता संवारती ,

कहीं दूर मैदान मे घास पर फिसलती ,

कभी शांत पानी में एक हलचल सी मचाती ,

कभी आंधियों के पहलू मे ख़ुद को उड़ाती ,

ये ज़िंदगी कई करवटें लेती है ,

हाँ ये ज़िंदगी ही तो है,

कभी मुझे साइकिल के कॅरिअर से लेकर गुज़री ,

तो कभी कार के शीशों के इस पार ले आयी,

कभी तो रात मे स्याह अँधियारा दिया,

कभी मुझे सूरज सा तेज़ उजियारा दिया,

कभी गली के तंग रास्तों मे चलाया,

कभी सड़क के चौड़े सीने पर दौड़ाया,

आसमान की सोच से,

गहरी उदासियों तक,

ज़िंदगी तूने मुझे हर रंग हैं भरके दिए,

कभी हँसते होठों के साए हैं,

कभी गालों पर आंसू आए हैं,

ज़िंदगी सच तूने मुझे क्या कुछ दिया,

या यूं कहें सब कुछ दिया...

मैं था....

नींद की थपकी कल मुझको जैसे मिली,
तेरी याद आकर सताने लगी !
तेरी खिड़की के नीचे खड़ा मैं रहा,
पलकें तेरी पर झुकी ही नहीं !
मैं तो तनहा रहा, मैं तो तनहा जिया,
मेरी अपनी ही धड़कन मुझे न मिली !
नींद से रूठकर उठ न जाओ कहीं,
मैं वहीं था खड़ा मैं हिला तक नही !
ज़िंदगी ने कहा जी ले कुछ पल ज़रा,
मैंने साँसे तो ली पर हुआ कुछ नही !
एक हँसी एक खुशी मुझको हर पल मिली,
पर ज़माना हँसे ये ज़रूरी नहीं !
वो सड़क जिससे गुज़रे थे हम तुम कभी,
वो सड़क अब तो शायद बची भी नहीं !
मैं था कतरा कहो एक टुकडा अगर,
चिंगारी ही था पर बुझा मैं नहीं