मंगलवार, 11 नवंबर 2008

सड़क

वो स्याह काली रात की चादर ओड़े,
ये ज़रा टेढी सी सड़क,
एक एहसास दिला रही है,
शायद बरसो से कोई गुज़रा नहीं,
उस पसरे हुए सन्नाटे में,
आँखे महसूस करती हैं,
चीखते अंधियारे को,
ये कान सुन रहे थे,
जगमगाती खामोशी को,
और कदम उठा रहे थे,
इन सबको नापने का ज़िम्मा,
ये कुछ ऐसा था जैसे,
उस लाशों से भरे शमशान में,
बरसो से किसी ने कदम नहीं रखा,
न कोई आग जली,
न कोई कफ़न उड़ा,
फिर भी वह कुछ तो है,
क्यूँ सन्नाटा चीख रहा है,
अँधियारा चमक रहा है,
इस सड़क को कोई मुकाम कब मिलेगा,
तरसते मील के पत्थरों को,
नया निशाँ कब मिलेगा,
कब यूँ होगा,
कि ये सड़क सूरज को देखेगी,
कब चिड़िया आकर बैठेगी,
कुछ पत्ते हवाओं से टूटकर नीचे गिरेंगे,
और फ़िर हवाएं उन्हें अपने साथ,
कहीं दूर ले जाएँगी,
रह जायेगी तो ये सड़क,
कहीं दूर अपनी मंजिल को देखती...

5 टिप्‍पणियां:

बेनामी ने कहा…

kaafi inspirational likha hai..Minaxi

बेनामी ने कहा…

wordsss r 22222222 shortttttttttttt
4444 any commentttt

SUGANDHA ने कहा…

words are not for those people who r really amazing .........n dats "you "

Shantanu ने कहा…

dhanyawaad, aap sabhi ka itne pyaare comments ke liye...aapke vichaar jaankar achcha laga...koshish karunga, aur behtar likhun...

Unknown ने कहा…

this is a perfect poem by a perfect person