शनिवार, 16 फ़रवरी 2008

मेरी कविता...



मेरी कविता,

जिसके लफ्ज़, कुछ खो से गए,

एहसास कहीं दब से गए,

न जाने कितनी कब्रें खोदी,

जज्बात भी कहीं भटक गए,

वो जो दूर काली स्याही है

उसी से तो लिखा,

ज़िंदगी के स्याह पन्नों पर,

कुछ ऐसा,

जो उसी में कहीं खो गया,

ख़ुद आज भी खोजती है मेरी कविता,

अपने वजूद को,

उन के बीच जो जगमगा रहे हैं,

शांत शोर के साथ,

मेरी कविता गूंजने की कोशिश कर रही है,

कोई शब्द मिले तो इसका नाम लिख दूँ,

पर शब्द ही छुप गए,

अब मेरी कविता, सिर्फ़ मेरी कविता है,

बेनाम है,

शायद एक दिन,

इसे भी पहचान मिले,

इसी उम्मीद में आज भी,

कुछ साँसे बाकी हैं....

मेरी ज़िंदगी...

ये मेरी ज़िंदगी है ,

हाँ सच कहीं छूटती सी ,

कहीं टूटती सी ,

कभी किसी डाल पर हवाओं के साथ झूलती सी ,

कभी लहरों पर मचलती सी ,

ये मेरी ज़िंदगी है ,

उस ऊंची मचान से ,

पर्वतों को निहारती ,

कभी दरवाज़े की ओट से ,

रास्ता संवारती ,

कहीं दूर मैदान मे घास पर फिसलती ,

कभी शांत पानी में एक हलचल सी मचाती ,

कभी आंधियों के पहलू मे ख़ुद को उड़ाती ,

ये ज़िंदगी कई करवटें लेती है ,

हाँ ये ज़िंदगी ही तो है,

कभी मुझे साइकिल के कॅरिअर से लेकर गुज़री ,

तो कभी कार के शीशों के इस पार ले आयी,

कभी तो रात मे स्याह अँधियारा दिया,

कभी मुझे सूरज सा तेज़ उजियारा दिया,

कभी गली के तंग रास्तों मे चलाया,

कभी सड़क के चौड़े सीने पर दौड़ाया,

आसमान की सोच से,

गहरी उदासियों तक,

ज़िंदगी तूने मुझे हर रंग हैं भरके दिए,

कभी हँसते होठों के साए हैं,

कभी गालों पर आंसू आए हैं,

ज़िंदगी सच तूने मुझे क्या कुछ दिया,

या यूं कहें सब कुछ दिया...

मैं था....

नींद की थपकी कल मुझको जैसे मिली,
तेरी याद आकर सताने लगी !
तेरी खिड़की के नीचे खड़ा मैं रहा,
पलकें तेरी पर झुकी ही नहीं !
मैं तो तनहा रहा, मैं तो तनहा जिया,
मेरी अपनी ही धड़कन मुझे न मिली !
नींद से रूठकर उठ न जाओ कहीं,
मैं वहीं था खड़ा मैं हिला तक नही !
ज़िंदगी ने कहा जी ले कुछ पल ज़रा,
मैंने साँसे तो ली पर हुआ कुछ नही !
एक हँसी एक खुशी मुझको हर पल मिली,
पर ज़माना हँसे ये ज़रूरी नहीं !
वो सड़क जिससे गुज़रे थे हम तुम कभी,
वो सड़क अब तो शायद बची भी नहीं !
मैं था कतरा कहो एक टुकडा अगर,
चिंगारी ही था पर बुझा मैं नहीं