शुक्रवार, 23 जुलाई 2010

तुम्हारी आँखे


मैंने कल तुम्हारी आँखे देखी थी,
न जाने कैसी पर एक कहानी कहती थी,
दूर किसी पेड़ की डाल पर,
कल को अनजाना कहती थी,
दीवारों से आरपार खिड़की खोले,
किसी धूप की बात कहती थी,
जीते जीते कुछ साँसे लेते,
किसी धड़कन को धडकती थी,
झुकते उठते गिरते चलते,
थोडा सा मुस्काती थी,
मैं जी लूं, कुछ जी लूं,
एक इशारा करती थी,
अंधियारे में गुमसुम गुमसुम,
कोई खोया रस्ता तकती थी,
मिल जाते ही उन अंखियों से,
कुछ गुनगुनाया करती थी,
सचमुच ये खुली खुली सी आँखे,
कोई एक कहानी कहती थी....

बुधवार, 14 जुलाई 2010

तुम 01

तुम मुडती हुयी उस सड़क सी हो,
किसी नए से रस्ते का अंदेशा बताती,
किसी नयी आहट का किस्सा बताती,
किसी पुरानी उलझन कि सुलझन बताती,
चौराहे को भी एक राह बनाती,
सपनो में से सच कि डगर बनाती,
न अगर न मगर,
सच को बस एक... सच बताती,
तुम्हारे आसपास एक मुस्कान सी फैली है,
तुम्हारे आसपास एक खुशबु सी बिखरी है,
तुम्हारे आसपास चांदनी भी है,
तुम्हारे आसपास रागिनी भी है,
मैं क्यूँ तुम्हारे आसपास रहता हूँ,
अपने मन में ये सवाल रखता हूँ,
जीता तो अपनी साँसों से हूँ,
पर उलझा तुम्हारे भीतर हूँ...

अंजान लगने लगा हूँ....

मैं कल से न जाने क्यूँ उस खिड़की के पास खड़ा सा हूँ,
कदम हैं कि हिलने की कोई हरक़त नहीं होती,
जुबां है की बोलने की हिम्मत नहीं होती,
दिल है की धडकने की सोच से डरता है,
ये मन हैं कि कुछ नयी कल्पना भी नहीं करता,
कभी घडी की टिकटिक से पलके खुल सी जाती है,
कभी अचानक से बजी दरवाज़े की घंटी हिला सा देती है,
वो कुछ दौड़ते कदमो की आहट मुझे आहत सा कर देती है,
कभी वो श्वान की तेज़ आवाज़ अन्दर तक हिला देती है,
अब अँधेरे से भी मैं कुछ घबराने सा लगा हूँ,
रौशनी के करीब जाने लगा हूँ,
मंदिर गिरजा के करीब कुछ बुदबुदाने भी लगा हूँ,
न जाने क्यूँ लेकिन खुद को अब अंजान लगने लगा हूँ,