दरख्तों के आईने में,
एक अक्स सा दिखा था,
कुछ पत्ते जब टूट कर ,
ज़मीन को छू भी ना पाए थे,
हवा ने सरगोशी की,
सन्नाटे में खामोशी की,
पत्ते उड़ कर बिखर गए,
कुछ तितर गए,
कुछ बितर गए,
एक कहानी अधूरी सी,
मंजिल बगैर पूरी सी,
चल पड़ी जो दबाव में,
कटे हाथ और पांव में,
सोचती कुछ कर चले,
कुछ कह चले,
कुछ सुन चले,
जो दखल मिले किसी और का,
तो सहारा लेकर चल पड़े
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