बुधवार, 29 अप्रैल 2009

आम हिन्दुस्तानी

संगीनों के साए में लहू का एक कतरा,
तलाशता हूँ मैं, खोजता हूँ मैं,
इधर उधर,
बाहें पसार कर,
पुतलियाँ घुमा कर,
अपनी उँगलियों में हरकत कर,
खोजता हूँ मैं, तलाशता हूँ मैं,
वो मिला मुझे,
वो दिखा मुझे,
सिसका हुआ,
सहमा हुआ,
कुछ डरा हुआ,
सिमटा हुआ,
मैंने सोचा हाल लूँ,
कुछ जान लूँ पहचान लूँ,
शायद किसी अखबार के चार कॉलम की ख़बर हो,
शायद किसी न्यूज़ चैनल की ब्रेकिंग न्यूज़ हो,
या शायद किसी पार्टी के लिए॥
चार दिन का बंद,
आठ दिनों का प्रदर्शन,
पन्द्रह दिनों का विवाद,
नही तो दो चार दिनों की ठप्प संसद ही मिल जायेगी,
बदले में मुझे कुछ कागजी,
कुछ कागजी ताकत मिल जायेगी,
तो मैंने उससे पूछ लिए वो सवाल,
जो ख़ुद बवाल बन बैठे,
तेरी उम्र क्या है ?
नाम क्या है ?
जात क्या है ?
पात क्या है ?
तू आरक्षित है ?
तू दलित है ?
तू मन्दिर है ?
तू मस्जिद है ?
सवाल तो कुछ बह चले थे,
शब्दों की अटूट धार से,
जवाब सुन के थम गए ठहर गए,
जवाब सिर्फ़ एक था,
मैं आम हिन्दुस्तानी हूँ...!!!

3 टिप्‍पणियां:

Mukul ने कहा…

जियो चाचा आप छा गए कहाँ थे
मुद्दे की बात बहुत सुंदर प्रस्तुतुकरण
मन को छु जाने वाला एहसास

बेनामी ने कहा…

this is very good sir..aakhir aapne apni kala ko pehchaan hi liya....yeh sab to very good hai....

Unknown ने कहा…

shantanu sir saach bahut sahi ehsaas kara rahi hai ye aap ki kavita ise blog se nikaliye aur paper ke through ghar ghar tak poohchaiye....