समंदर के किनारे,
उस गीली रेत पर,
मेरे तुम्हारे कदमो के निशाँ ,
आज भी दुनिया वालों को नज़र आते है,
ग़मों का समंदर, जो उदास है,
थमा थमा सा है,
निशाँ को छू भी ना पाया,
वहीँ खुशियों की लहर,
न जाने कितनी बार,
लहराती, बलखाती, निशान को भिगो कर चली गयी,
तभी तो हम तुम, ना होकर भी,
वहाँ रेत पर बसते हैं,
तुमने सोचा था,काश ऐसा हुआ होता,
ये निशान किसी पत्थर पर होता,
ना हटने न मिटने का डर होता,
जरुरत ही न होती जताने की,
जरूरत ही न होती बताने की,
फिर भी खुश हूँ मैं,
रेत पर अपने निशान देख,
कितना मज़बूत है ये रिश्ता,
कितना मज़बूत है ये भरोसा,
जिसे ये पानी, ये हवा, ये सूरज, ये धरती,
न छू सके, न मिटा सके,
वो दुनिया से क्यूँ डरे,
शायद तभी इसे प्यार कहते हैं,
नहीं इसे मेरा और तुम्हारा एकाकार कहते हैं
मंगलवार, 22 जुलाई 2008
शुक्रवार, 18 जुलाई 2008
हम उनसे कहते हैं
हम उनसे कहते हैं,
ये काजल ज़रा हटालो,
जो खुद ही सुरमयी है,
उसे ऐसे क्यूँ ढकते हो,
हम उनसे कहते हैं,
ये पलके ज़रा उठा लो,
हम कबके थम गए हैं,
कुछ साँसे ज़रा दिला दो,
हम उनसे कहते हैं,
मेरे कंधे पर सर रख दो,
कोई दर्द तलाशे लम्हा,
उसे उसमें गुम होने दो,
वो कोर पर सिमटा आंसू,
बेताब है जो बहने को,
उसे बाँध के यूँ न रखो,
लबों को छू जाने दो,
तभी तो हर धड़कन का,
हर कतरा बोलेगा,
चलो ज़रा सा हंस ले,
ये गुज़रा लम्हा जी लें,
बस यूँ ही हम उनसे कहते हैं,
ये काजल ज़रा हटालो,
जो खुद ही सुरमयी है,
उसे ऐसे क्यूँ ढकते हो,
हम उनसे कहते हैं,
ये पलके ज़रा उठा लो,
हम कबके थम गए हैं,
कुछ साँसे ज़रा दिला दो,
हम उनसे कहते हैं,
मेरे कंधे पर सर रख दो,
कोई दर्द तलाशे लम्हा,
उसे उसमें गुम होने दो,
वो कोर पर सिमटा आंसू,
बेताब है जो बहने को,
उसे बाँध के यूँ न रखो,
लबों को छू जाने दो,
तभी तो हर धड़कन का,
हर कतरा बोलेगा,
चलो ज़रा सा हंस ले,
ये गुज़रा लम्हा जी लें,
बस यूँ ही हम उनसे कहते हैं,
शुक्रवार, 11 जुलाई 2008
दखल
दरख्तों के आईने में,
एक अक्स सा दिखा था,
कुछ पत्ते जब टूट कर ,
ज़मीन को छू भी ना पाए थे,
हवा ने सरगोशी की,
सन्नाटे में खामोशी की,
पत्ते उड़ कर बिखर गए,
कुछ तितर गए,
कुछ बितर गए,
एक कहानी अधूरी सी,
मंजिल बगैर पूरी सी,
चल पड़ी जो दबाव में,
कटे हाथ और पांव में,
सोचती कुछ कर चले,
कुछ कह चले,
कुछ सुन चले,
जो दखल मिले किसी और का,
तो सहारा लेकर चल पड़े
गुरुवार, 10 जुलाई 2008
आँखे
आँखे कुछ सपने देखती है,
आँखे कुछ सपने बुनती है,
कभी बीते कल से नम होती हैं,
कभी आते कल को छूती है,
कभी हौले हौले चलते पल को,
निखर निखर सहलाती है,
पलकों को ऊपर उठती है,
ऊंचाई अम्बर की छूनी है,
नीचे जब ये देखती है,
धरती पाताल मिलाती है,
आशा की बूंदों से भीगे,
उम्मीदों को दौडाती है,
अपनी सोच से आगे चलते,
रंग दिमाग पर रचती है,
आँखे कुछ सपने बुनती है,
कभी बीते कल से नम होती हैं,
कभी आते कल को छूती है,
कभी हौले हौले चलते पल को,
निखर निखर सहलाती है,
पलकों को ऊपर उठती है,
ऊंचाई अम्बर की छूनी है,
नीचे जब ये देखती है,
धरती पाताल मिलाती है,
आशा की बूंदों से भीगे,
उम्मीदों को दौडाती है,
अपनी सोच से आगे चलते,
रंग दिमाग पर रचती है,
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